शनिवार, 6 सितंबर 2008

...और मेरी गृहस्थी में छोड़कर चले गए.

पिछले अंक में,
(पहलीबार चाय बनाना सिखा,फ़िर चोरी से आलू कि भुजिया और पराठे बनाए,फ़िर मेरे कांफिडेंस के चलते बगल के अंकल आंटी को होटल में खाना पड़ा।)
आगे...
खैर,वक्त के साथ-साथ तमाम आदतें बदलती गयीं,पर एक आदत जो अब भी बरक़रार थी,मम्मी के साथ किचन में मौजूद रहना।जब पहलीबार चाय बनाया तो पहली कक्षा में पढता था फ़िर लंबा गैप हुआ,अब जब १२वीं पास करके बी।एस सी की पढाई के लिए घर से दूर रहने जाना पड़ा तो मेरा ख़ुद का एक किचन था।मुझे याद है मेरी ख़ुद की गृहत्स्थी की चीजों की खरीदारी की जिम्मेदारी भी मुझपर ही थी.बहुत मन से मैंने एक-एक चीज की लिस्ट बनाई जिसकी आवश्यकता मुझे मेरी गृहस्थी में होनी थी,फ़िर ख़ुद जाकर मार्केट से खरीदारी की.हालाँकि,अपनी अनुभवहीन खरीदारी के लिए मुझे काफ़ी आलोचना भी सहनी पड़ी,मसलन,तवा इतना भारी क्यों ले लिया?बेलन ऐसा क्यों है?चिमटा ऐसा होना चाहिए था,वगैरह वगैरह...पर इन सबके बीच मैं खुश था,आख़िर मेरी ख़ुद की गृहस्थी जो शुरू होनी थी.
जब गोरखपुर में रहने का इंतजाम हो गया,तो यह तय हुआ कि भैया मुझे गोरखपुर पहुंचाने जायेंगे।खैर,७ अगस्त २००४ को पूरा गट्ठर तैयार कर घर से निकले।गोरखपुर पहुंचकर सारा सामान अपने कमरे में व्यवस्थित किया।चूँकि गोरखपुर मेरे लिए बिल्कुल नया और अपरिचित था इसलिए आवश्यकता की जो चीज़ें बाकी रह गई थीं,भैया खरीदकर लाये।
अब बात आई कि गोरखपुर में खायेंगे कैसे,तो भइया ने समझाया कि पढने वाले लड़के कैसे खाना बनाते हैं?क्या बनाते हैं?
अच्छी तरह याद है जो पहली चीज अपने किचन में बनाई वो अरहर की दाल थी,वास्तव में,भैया मुझे कमरे में अकेला छोड़कर जाने के पहले आश्वस्त हो जाना चाहते थे कि मैं बना खा पाउँगा या नहीं,तो दाल भी उन्होंने ही बनवाई,फ़िर फ्राई करवाया।अब दाल को खाने के लिए कुछ तो चाहिए ही था तो चावल भी बनाना पड़ा(हालाँकि वो खाना न मैंने खाया न भैया ने)।इस तरह मेरा प्रशिक्षण पूरा हुआ।साथ में ताकीद भी दी गई कि जरुरी नहीं की रोज-रोज खाना बनाओ ही,बीच बीच में जब बनाने का मन न करे या कुछ अलग खाने का मन करे तो होटल चले जाना(वैसे ये बात वो नहीं भी कहते तो मैं करता ही पर कहना उनका फर्ज था।),मंगल, वृहस्पतिवार छोड़कर हर दिन शाम को अंडा-करी बना लेना,पढने वाले लड़कों के लिए सबसे आसान खाना यही होता है,वगैरह वगैरह....फ़िर मुझे मेरी नई बसी गृहस्थी में छोड़कर घर लौट गए...
क्रमशः
आलोक सिंह "साहिल"

19 टिप्‍पणियां:

रंजू भाटिया ने कहा…

बढ़िया शुरुआत हुई आपकी पाक कला की :)

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

वाह...
आपके अनुभव पढ़ कर अपना बचपन याद आ गया.
हालांकि मैंने जैसा बचपन काटा..
भगवान दुश्मन को भी ना कटवाये..!!!!
खैर....

makrand ने कहा…

smartly telling the truth

admin ने कहा…

रूचिकर आख्यान है। कहानी जारी रखें---

Rinku ने कहा…

aap itne saare blog kaise manage karti hai

महेश लिलोरिया ने कहा…

आरी को काटने के लिए सूत की तलवार???
पोस्ट सबमिट की है। कृपया गौर फरमाइएगा...
-महेश

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

कहां हो भाई...?

Jimmy ने कहा…

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दिवाकर मिश्र ने कहा…

नमस्कार साहिल जी । कब से सोचता था कि कभी आपके ब्लॉग पर आने का अवसर आए । आपका नाम सदा हिन्दयुग्म पर ही दिखता था परन्तु ब्लॉग का लिंक नहीं । आज सुधाकर के ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी से एक छोर मिल गया । उसे पकड़ते पकड़ते मैं इस ओर आ पहुँचा । इसके लिए सुधाकर भी धन्यवाद के पात्र हैं । चलो अब मिल गए हैं, तो आगे भी मिलने का रास्ता खुल ही जाता है ।

Jimmy ने कहा…

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निर्मला कपिला ने कहा…

bahut badiyaa hai

अभिषेक मिश्र ने कहा…

रोचक है गृहस्थी का अनुभव आपका. स्वागत

ज्योत्स्ना पाण्डेय ने कहा…

आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .आपका लेखन सदैव गतिमान रहे ...........मेरी हार्दिक शुभकामनाएं......

admin ने कहा…

गृहस्‍थी के अनुभवों को साझा करने का आभार।

Dileepraaj Nagpal ने कहा…

Shuruwaat Kisi Bhi Ceej Ki Ho. Chay Bnane Ki Ya Kisi Aur Kaam Ki. Pahla Ehsas Kabhi Nahi bhoolta. acha likha aapne. Badhayi

admin ने कहा…

रोचक दास्तान है। अगली कडी की प्रतीक्षा रहेगी।

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अभिनय के उस्ताद जानवर
लो भई, अब ऊँट का क्लोन

Science Bloggers Association ने कहा…

ये रसोई तो कब से ठंडी पडी है।
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सम्मोहन के यंत्र
5000 सालों में दुनिया का अंत

Unknown ने कहा…

बढ़िया शुरुआत हुई आपकी..........

हर्षिता ने कहा…

रोचक है गृहस्थी का अनुभव आपका।